रविवार, 29 अगस्त 2010

‘राष्ट्रवाणी’ का नया अंक डॉ0 महेन्द्रभटनागर पर आधारित

राष्ट्रवाणीका नया अंक

राष्ट्रवाणी’ : कवि महेंद्रभटनागर विशेषांक : 2010
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'महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे' ने अपनी द्वि-मासिक पत्रिका 'राष्ट्रवाणी' का, लगभग एक-सौ पृष्ठों का विशेषांक, लब्ध-प्रतिष्ठ कवि महेंद्रभटनागर के काव्य-कर्तृत्व पर, प्राचार्य सु॰ मो॰ शाह के सम्पादन में, प्रकाशित किया है।

महेंद्रभटनागर हिन्दी प्रगतिवादी-जनवादी काव्य-धारा के चर्चित कवि हैं। उनका रचना-कर्म स्वतंत्रता-पूर्व प्रारम्भ होकर (सन् 1941 से) आज-तक निर्बाध रूप से गतिशील है। उनकी उन्नीस काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं; जो अनेक विदेशी और अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित प्रकाशित हैं। ऐसे कृती रचनाकार के कर्तृत्व पर विशेषांक प्रकाशित कर, 'महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे' ने स्तुत्य कार्य किया है।

प्रस्तुत विशेषांक में महेंद्रभटनागर के काव्य-वैशिष्ट्य को उजागर करते हुए दस आलेख प्रकाशित हैं; जिनमें डा॰ सुन्दरलाल कथूरिया (महेंद्रभटनागर-विरचित काव्य 'अनुभूत-क्षण' — मानवीय जिजीविषा का निष्कम्प स्वर), डा॰ भगवानस्वरूप 'चैतन्य' ('जनकवि महेंद्रभटनागर') और आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' (महेंद्रभटनागर के गीतों में आलंकारिक सौन्दर्य') के आलेख विशेष महत्त्व के हैं। इस विशेषांक की एक अन्य विशेषता है; तेलुगु भाषी दो यशस्वी कवियों ( अजंता और सी॰ नारायण रेड्डी) से उनके काव्य का तुलनात्मक अध्ययन; जो हिन्दी-तेलुगु साहित्य के विशेषज्ञ विद्वानों प्रो॰ पी॰ आदेश्वर राव और डा॰ सूर्यनारायण वर्मा द्वारा लिखित हैं। विशेषांक में कवि महेंद्रभटनागर के दो साक्षात्कार भी प्रकाशित हैंएक — 'कविता में काम-चेतना' विषय पर डा॰ सुरेशचद्र द्विवेदी (अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर प्रसिद्ध लेखक, इलाहाबाद); दूसराउनके काव्य पर शोधरत एक शोधार्थी श्री॰ विपुल जोधानी (सौराष्ट्र) द्वारा।

महेंद्रभटनागर-विरचित एक-सौ-सोलह कविताओं के प्रकाशन के फलस्वरूप प्रस्तुत विशेषांक की उपादेयता में निर्विवाद रूप से उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। कविताओं के विषयानुसार चयन से, शोधार्थियों और आलोचकों के लिए, विशेषांक अत्यधिक उपयोगी बन गया है। महेंद्रभटनागर की इन कविताओं को पाँच खडों में विभाजित किया गया है(1) समाजार्थिक यथार्थ की कविताएँ (2) जीवन-राग की कविताएँ (3) प्रणय-सौन्दर्य की कविताएँ (4) प्रकृति-सौन्दर्य की कविताएँ (5) मृत्यु-बोध से सम्बद्ध कविताएँ।

नि:संदेह, 'राष्ट्रवाणी' का प्रस्तुत 'कवि महेंद्रभटनागर-विशेषांक' ऐतिहासिक महत्त्व का प्रकाशन है; जो हमें यशस्वी कवि महेंद्रभटनागर के जीवन और काव्य-सृजन से रू--रू कराता है। काव्य-विशेषांक के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित कवि का परिवर्द्धित आकार का चित्र उनके आकर्षक-प्रभावी व्यक्तित्व का द्योतक है; जो पाठक के मन में सहज ही आत्मीय भाव उत्पन्न करता है। संस्था के प्रमुख, प्राचार्य सु॰ मो॰ शाह जी को इस उत्कृष्ट सारस्वत आयोजन के लिए अनेक साधुवाद।

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पत्रिका प्राप्ति हेतु पता :
राष्ट्रवाणी’, राष्ट्रभाषा भवन, 387 नारायण पेठ, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे — 411030 / महाराष्ट्र

प्रस्तुति ---
डॉ॰ अलका रानी,
हिन्दी-विभाग, आर-पी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कमालगंज - फ़रुक़्ख़ाबाद— 209724 (उत्तर-प्रदेश)


मंगलवार, 3 अगस्त 2010

भूमंडलीकरण के दौर में भी प्रासंगिक है प्रेमचन्द का साहित्य -- संगोष्ठी रिपोर्ट

पोर्टब्लेयर में प्रेमचन्द जयंती पर संगोष्ठी

भूमंडलीकरण के दौर में भी प्रासंगिक है प्रेमचन्द का साहित्य


कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी की 131 वीं जयंती पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में हिंदी साहित्य कला परिषद् के तत्वाधान में संगोष्ठी का आयोजन किया गया. संगोष्ठी का विषय था- ''भूमंडलीकरण का वर्तमान सन्दर्भ और प्रेमचन्द का कथा साहित्य'' . संगोष्ठी का शुभारम्भ द्वीप-प्रज्वलन और प्रेमचन्द जी के चित्र पर माल्यार्पण द्वारा हुआ. मुख्या अतिथि के रूप में संगोष्ठी को संबोधित करते हुए चर्चित साहित्यकार और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के डाक निदेशक कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि- प्रेमचन्द के साहित्य और सामाजिक विमर्श आज भूमंडलीकरण के दौर में भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। श्री यादव ने कहा कि प्रेमचन्द ने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया, वह छायावाद का दौर था। निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी जैसे रचनाकार उस समय चरम पर थे पर प्रेमचन्द ने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। राष्ट्र आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था, चाहे वह जातिवाद या साम्प्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और समाजिक भेद-भाव हो। कृष्ण कुमार यादव ने जोर देकर कहा कि आज प्रेमचन्द की प्रासंगिकता इसलिये और भी बढ़ जाती है कि आधुनिक साहित्य के स्थापित नारी-विमर्श एवं दलित-विमर्श जैसे तकिया-कलामों के बाद भी अन्ततः लोग इनके सूत्र किसी न किसी रूप में प्रेमचन्द की रचनाओं में ढूंढते नजर आते हैं.


परिषद् के अध्यक्ष आर० पी0 सिंह ने संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए कहा कि, प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। आज भी भूमंडलीकरण के इस दौर में इस सच्चाई को पहचानने की जरुरत है. डा० राम कृपाल तिवारी ने कहा कि प्रेमचन्द की रचनाओं में किसान, मजदूर को लेकर जो भी कहा गया, वह आज भी प्रासंगिक है. उनका साहित्य शाश्वत है और यथार्थ के करीब रहकर वह समय से होड़ लेती नजर आती हैं. जयबहादुर शर्मा ने प्रेमचन्द के जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। डी0 एम0 सावित्री ने कहा कि प्रेमचन्द का लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी का विकास संभव ही नहीं था। उन्होंने दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से करके एक नजीर गढ़ी. जगदीश नारायण राय ने प्रेमचन्द की कहानियों पर जोर देते हुए बताया कि वे उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। उनकी तुलना विश्व स्तर पर मैक्सिम गोर्की जैसे साहित्यकार से की जाती है. वे युग परिवर्तक के साथ-साथ युग निर्माता भी थे और आज भी ड्राइंग रूमी बुद्धिजीवियों की बजाय प्रेमचन्द की परम्परा के लेखकों की जरुरत है. संत प्रसाद राय ने कहा कि प्रेमचन्द भूमंडलीकरण के दौर में इसलिए भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि वर्षों पूर्व उन्होंने जिस समाज, गरीबी प्रथा के बारे में लिखा था वह आज भी देखने को प्राय: मिलती हैं.

द्वीप लहरी के संपादक और परिषद् के साहित्य सचिव डा0 व्यासमणि त्रिपाठी ने कहा कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था. उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस ग्लैमर और उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रेमचन्द की रचनाएँ आज भी जीवंत हैं क्योंकि वे आम आदमी की बाते करती हैं. अनिरुद्ध त्रिपाठी ने कहा कि प्रेमचन्द ने गांवों का जो खाका खिंचा, वह वैसा ही है. उनके चरित्र होरी, गोबर, धनिया आज भी समाज में दिख जाते हैं. भूमंडलीकरण की चकाचौंध से भी इनका उद्धार नहीं हुआ. परिषद् के प्रधान सचिव सदानंद राय ने कहा कि गोदान, गबन, निर्मला, प्रेमाश्रम जैसी उनकी रचनाएँ आज के समाज को भी उतना ही प्रतिबिंबित करती हैं. प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। यह उनकी विश्वस्तर पर लोकप्रियता का परिचायक है. कार्यक्रम का सञ्चालन डा0 व्यासमणि त्रिपाठी व धन्यवाद परिषद् के उपाध्यक्ष शम्भूनाथ तिवारी द्वारा किया गया.

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डा0 व्यासमणि त्रिपाठी
संपादक- द्वीप लहरी
साहित्य सचिव-हिंदी साहित्य कला परिषद्, पोर्टब्लेयर
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह